मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

क्रांति के हवन कुंड में जनपद की आहुति


राहुल कौशल


यह सत्य कथा सन 1857 की क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेजो द्धारा किये जुल्मों सितम की है। अंग्रेज सेना के अत्याचारों से परेशान और भयग्रस्त जनपद के मलागढ़ क्षेत्र के लोग अनूपशहर के पास के जंगलों में पड़े हुए थे उस समय वहां से कुछ ही दूर अंग्रेज सैनिको की टुकड़ी आ जाने से आसपास के गाँव में आना और रसद सामग्री ले जाना मुश्किल हो गया था। एक दिन पुरुष रसद सामग्री लेने के लिए दूर तक निकल गए। केवल स्त्रियाँ पेड़ों के नीचे बैठी हुई अपने कपड़ों की मरम्मत कर रही थी। तभी पास के गाँव के एक 14 वर्षीय लड़के ने आकर कहा कि कुछ सिपाही इधर की ओर आ रहे है। इतना कह कर वह लड़का भाग गया। सभी स्त्रियाँ हक्की बक्की होकर खड़ी हो गई। इतने में लालबीबी की आवाज आई की कुछ अंग्रेज सैनिक उधर की ओअर आ रहे है। जब कुछ महिलाए अपने समान एकत्र कर रही थी तभी कुछ लड़कियां भाले, कुल्हाड़ी आदि ले आई। अंग्रेज सैनिक सहम गए और इतने में अन्य महिलायें भी अपने हाथों में हथियार उठा लाई। सैनिको के हाव भाव से प्रतीत हो रहा था की वो उनको मारने के मकसद से नहीं बल्कि उनके साथ वलात्कार जैसी जघन्य धटना को अंजाम देने आये थे।

जब यह घटना हो रही थी तब स्त्रियों का हल्ला सुनकर पास के गाँव के ग्वाले अपनी गाय और बैलों को भागकर उधर ले आये। यह बेजुबान पशु भी स्त्रियों की लाज के लिए शत्रुओ पर टूट पड़े। पशुओ के आचानक हुए इस हमले से वो सभी सैनिक भाग खड़े हुए और स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा हुई। भागते समय ही अन्य पुरुष भी आ चुके थे जिनके हमले में अंग्रेज सैनिक मार दिए गए और उनका गोला बारूद जब्त कर लिया गया।

यह घटना होने के बाद लोगों ने सोचा की की निश्चय ही शत्रु बदला लेने अवश्य आएगा। आक्रमण की आशंका के मद्देनजर उन सभी लोगो ने डेरा उठाकर कगारों में स्त्रियों और बच्चों को छिपा दिया और खुद मोर्चाबंदी करके बैठ गए। साथ ही कुछ पुरुष पेड़ो पर चढ़ गए ताकि दूर से ही उनके आने की पता लग सकें। शाम होते होते खबर मिली की क्रीतदास हिन्दुस्तानी और गोर सिपाहियों का एक दल इधर ही आ रहा है।

जब अंग्रेजों को देशभक्तों से मुंह की खानी पड़ी तो उसके बाद अंग्रेज किस तरह से कहर बरपाते थे यह रात्रि उस बात की गवाह है। शाम धीरे-धीरे गुप अँधेरे से युक्त रात्रि में बदल गई। बस फिर क्या था चहुंओर से अंग्रेज सैनिको की बंदूकें गरज उठी। स्त्रियाँ भविष्य की आशंकाओ से ग्रस्त होकर सोचते हुए कांपने लगी। लड़ाई लड़ने के लिए गए लोगो की वापसी को लेकर बुरे बुरे ख्याल आ रहे थे। क्या वह शत्रु द्धारा मरे तो नहीं गए ? क्या वह जीवित है ? क्या घरवालो का मुंह देखे बिना मरना होगा ? कभी सोचती निकलकर देखे की क्या स्थिति है लेकिन वहां से ना निकलने के कड़े आदेश थे। करीब दो घंटो के बाद बन्दुकों की गर्जना रुक गयी।कुछ समय बाद वहां कुछ लोग हथियार और कारतूस, वर्दी आदि लेकर आये और स्त्रियों के पास रख दिए। उन लोगोने बताया की शत्रुओ की एक टुकड़ी का सफाया कर दिया गया है, लड़ाई अभी भी चल रही है। उन्होंने बताया की घबराने की कोई बात नहीं है सब लोग साथ है धैर्य बनाये रखों।

बार बार हो रहे हमलों को देखते हुए वहां से सभी ने कूच करना ठीक समझा, उनके साथ आसपास के भयग्रस्त लोग भी सम्मलित हो गए। लोगो ने सभी बर्दियाँ पहन ली और जो लड़ने में सक्षम थे उन्होंने बन्दुक ले ली। यह लोग रात्रि में ही चलते और दिन में रुककर आराम करते। घोड़ो पर सवार लोग आगे का निरिक्षण करते रहते थे। उनकी खबर के आधार पर आगे बढ़ने और रुकने का फैसला किया जाता था। वर्दी पहने होने के कारण रास्ते के लोग उनको सरकारी लोग ही समझते थे।

एक दिन रस्ते में चलते हुए टुकड़ी को समाचार मिला की पास के गाँव में अंग्रेजों की फौजी टुकड़ी ने पैशाचिक विध्वश किया है। फौजी टुकड़ी ने गाँव में आग लगा दी है, गाँव धू-धूकर जल रहा है। मारे गए बच्चों, स्त्रियों, बालक-बालिकाओं की लाशें जहाँ-तहां बिखरी हुई है। पूछने पर पता चला की उस गाँव ने विद्रोह में भाग नहीं लिया लेकिन फिर भी उस गाँव में मदांध अंग्रेजो ने और उनके पिछलग्गू भारतीय सैनिको ने विनाशलीला की थी। इस प्रकार ना जाने जनपद के कितने ही गाँव रक्तरंजित कर दिए गए, उन्हें आग के हवाले कर दिया गया, महिलाओं के साथ बलात्संग जैसे राक्षसी कुकृत्य किये गए। हमारा जनपद भी क्रांति के हवन कुंड में अपनी आहुति देने से पीछे नहीं रहा।

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