शनिवार, 27 नवंबर 2010

मत पूछिए क्यों नहीं दीखते

महल नहीं दीखते, वो खेत नहीं दीखते
महलों के ठाट तो गावं में चलते हल नहीं दीखते

महलो का इत्र गावं की वो सोंधी सी महक
लोगो के दिलो में प्यार के भाव नहीं दीखते

हर ओर जैसे पसरा है पैसा ही पैसा
इंसानों में बड़ो के लिए सत्कार नहीं दीखते

महलो की एकता, गावं की समानता
चिडियों के चहचहाने के मंजर नहीं दीखते

राजभोग का स्वाद, गावं के छाज
हाय, अब वो पनघट नहीं दीखते

लहराती तलवार, हसिया सी धार
धरती माँ के लिए तैयार लोग नहीं दीखते

राजकीय शोक, गावं का दुःख
साथ झेलने को एक साथ समाज नहीं दीखते

काट दो, चीर दो रिश्तो में दे दो आग
प्यार, जज्बात के अब अंश नहीं दीखते

महलो के जवाहरात, गावं की मिठास
क्या कहे अब ये क्यों नहीं दीखते क्यों नहीं दीखते ??

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

सही बात है सब कुछ बदल गया है। आपकी कविता ने गाँव की याद दिला दी। सुन्दरे रचना के लिये बधाई। धन्यवाद।

Rahul Kaushal ने कहा…

माता जी आपके स्नेह का हमेशा अभिलाषी