शुक्रवार, 24 मार्च 2017

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ -- भाग दो

बात कब की है यह नहीं मालूम लेकिन यह याद है की यह एक सांस्कारिक कार्यक्रम है। सुबह सबेरे हमारे सबसे शरारती मामा जी स्व0 श्री महेंद्र शर्मा सोते हुए सब बच्चो की चादरें खींचकर जगाने लगते और सबसे मजे लेतेेे और कहते की नेस्तियो उठ जाओ सुबह का सूरज चढ़ आया। सच मानिये सुबह के 5 या 6 बजे वो भी जाड़ो में किस कदर बुरा लगता है आप समझ सकते है और यह हाल सभी का होता लेकिन जितने मामाजी मजाकिया थे उतने ही गुस्से वाले भी थे, प्यार का आलम यह की आपके लिए कुछ भी कर जाय, एक किस्सा उनका सुनाता हूँ सुनिए
“एक बार बच्चो का मतलब हम सब का मन खरबूजे खाने को हुआ तो शायद 25 किलो खरबूजे एक बोर में खरीद कर ले आये और जो फीका निकलता उसको फैंकते जाते की भैंस खा लेंगी, और हुआ यह की एक दो को छोड़कर कोई मीठा नहीं निकला तो बोले अबे सारे नहीं फैकने है कुछ को बुरा लगाओ और खा लो।“
खैर बात वही से शुरू करते है। उठाने के बाद सभी लडके घर के वफादार विक्की (जर्मनशेफर्ड कुत्ता) को लेकर खेतो पर निकल जाते है जहाँ नित्य क्रिया से निवृत होकर रसगुल्ला नाम का गन्ना खाते फिर वापस घर आकर नहाते और सुबह-सुबह का स्वादिष्ट भोजन मक्खन और मठ्ठे के साथ लेते। यह एक परिवार का एक दूसरे के प्रति प्यार ही तो था की जिसको रात्रि में डिबियां जलानी है वो बिना किसी देरी के यह कार्य करेगा और जिसको जानवर बाँधने है वो बांधेगा, जिसको ताले लगाने है वो ही लगाएगा बिना किसी परिवर्तन के। असली मजा इस कार्यक्रम में यह था की सोने के लिए रथखाना (एक बड़ा सा कमरा) होता जहाँ गन्ने की तुड़ी बिछा कर उनके ऊपर दरे, फिर गद्दे और अंत में चादर का बिछौना बनाया जाता। जहाँ सभी लडके और पुरुष एक साथ सोते। पहले गप्पे लगाय जाते फिर मूंगफली खाई जाती, हाँ कोई-कोई मेरी तरह रबड़ी का स्वाद भी लेता और सोने से पहले गुड और हंडिया का लाल वाला दूध मलाई मारके पी जाता था।
हमारी दो मामियां लग जाती खाना बनाने में लग जाती और एक दो का नहीं बल्कि 30 से 40 लोगो का। और आप तो जानते है जहाँ अपने चार बच्चे हो बहनों के छः और भाइयो के पांच और इनके आलावा चचेरे भाइयो के बच्चे भी हो तो समझ लो खाना बनाने की क्या आफत होगी कोई नमक तेज वाला है को सलाद वाला कोई हलके पतले फुल्के खाने वाला। यह तो संयम है हमारी आदरणीय मामियो का की वो बड़ी समझदारी के साथ सब काम निवता लिया करती थी और रात को सोने से पहले सब थकान भूल कर हंसी-ठिठोली हुआ करती तो उसका हिस्सा भी बना करती। कई बार फीकी खीर बनती जिसमें स्पेशल सिम्भावली की शक्कर डाली जाती थी क्या स्वाद आता बस पूछिए मत। जून की गर्मियो में भी रात में चादर ओढ़नी पड़ती थी लेकिन अब गाँव में भी प्रदुषण का प्रभाव दिखने लगा है।
एक और किस्सा याद आया बड़े मामा जी के बड़े बेटे प्रदीप भाई दूध की डेरी चलाया करते थे, एक सुबह दूध लेने वाली गाडी नहीं आई अब सबसे ज्यादा मस्त और कॉमिक करेक्टर पंकज भाई के दिमाग में आया की दूध खराब हो इससे पहले इसका मावा बनवाया जाय भाई दो कैन दूध का मावा बनवाया गया। और घर बाहर के लोगो ने दबा के उन पेड़ो का स्वाद लिया।
हमारा यहाँ खेतो के नाम कुछ ऐसे लिए जाते थे की दिशा का ज्ञान भी हो जाय जैसे धुबिया वाले खेत, पछा वाले खेत और भूड वाले खेत। भूड वाले खेत थोडा बड़े थे इसलिए वहां मचान बनी हुई थी। वहां अक्सर ट्यूबेल चलता रहता था और दिन में हम वहां खेलने जाया करते वहां का असली खेल था भैंसे की सवारी और मटर के खेत में धमाके करने। गंधक और पोटाश को हतौडी में भर कर छोड़ा करते थे। इस खेत पर एक बार मैंने अर्थात (राहुल) और मेरी छोटी मौसी के लड़के अमित भैया ने एक काण्ड किया हमने एक लकड़ी के तख्ते में चोबे लगाए और उसको सड़क पर रख दिया और खुद छिपकर देखने लगे सच मानिए उस दिन हमने 7 बड़े वाहनों में पंक्चर किया।पूरा दिन हम अपनी हरकत पर गर्व महसूस करते रहे।

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किस्से और भी है अगले अंको को पढ़िए और अपने बीते कल जैसे पल जी लीजिये--------

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