शुक्रवार, 24 मार्च 2017

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ - भाग एक

आप सभी के लिए दिल से लिखी कहानियां शुरू कर रहा हूँ जो समय रह रह कर याद आता है उनको लिख रहा हूँ समय हो तो पढियेगा। और हाँ इस कहानी में कोई लाग लपेट इसमें सिर्फ दिलके भाव, सुख, दुखः और मिटटी की माहक है। मनोरंजन के लिए नहीं सिर्फ भावों के लिए पढ़िए....

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ

15 मई को रिजल्ट आया घर आये और आकर पता चला कि नानी जी के यहाँ जाने की बात चल रही है। बस फिर क्या था रंगा और बिल्ला की ख़ुशी का ठिकाना नही था आखिर उस जगह जाने की बात हो रही थी जहाँ सबसे ज्यादा जाने का मन इन दोनों का रहता है क्योकि अत्यधिक प्रेम और स्नेह की जगह यही तो है “नानी का घर”।

बुलंदशहर से मुंढाखेडा (अमरोहा) की यात्रा

उस समय अमरोहा के लिए या मुरादाबाद के लिए सीधी सवारी नहीं हुआ करती थी। आने जाने के दो साधन थे, पहला स्याना होते हुए गढ़ और फिर गजरौला। गजरौला से धनौरा के लिए मेटाडोर चला करती थी। फिर धनौरा से हर घंटे पर एक बस पैसेंजर और एक मेल चला करती थी, बस उसमें बैठ 11 किलोमीटर का बाकि सफर यात्रा के लिए रह जाता। असली मजा यहीं से शुरू हो जाता था क्योकि यहाँ से हमारी हर मांग पूरी होने लगती थी। कभी कुछ खाने को मिलता कभी कुछ, उस समय एक सॉफ्ट ड्रिंक चला करती थी सिट्रा भाई वो मिल जाती तो लगता अमृत मिल गया।

अभी यात्रा का असली मजा बाकि था भाई गाँव को जाते हुए काली सड़क पर चलती प्राइवेट बस झपड़-झपड़ करती मंजिल की और चलती चली जाती, कमाल की बात यह है की वो सड़क बस इतनी चौड़ी हुआ करती की एक बस के दोनो तरफ के टायर दोनों किनारों के ऊपर हुआ करते दूसरा वाहन आ जाय तो एक को कच्चे में उतरना पड़ता। गाँव की सरहद आते ही वहां पर या तो कोई से मामा जी मिलते यह कोई से भैया और साथ होती भैंसा-बुग्गी आय हाय मजे हो जाते टिक टिक टिक हुर्रे करते हुए पहुँच जाते गाँव।

मेल-मिलाप

आज की तरह नहीं उस समय का मेल-मिलाप गजब का हुआ करता बच्चो को गले लगाया जाता और उनके माथे पर चूमा जाता। हमारे नाना जी साथ भाई थे जिनका जलवा पूरे क्षेत्र में था। हमारी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे छोटी थी जिस कारण उनको तो स्नेह मिलता ही था हमको उनसे ज्यादा मिलता था। खैर हमने अपने नाना जी तो देखे नहीं थे उनके जो भाई थे उनको देखा और उनसे बहुत कहानियां सुनी थी। कोई गुस्से वाले नाना थे कोई बड़े हंसमुख। कहानियां सुनी वो आज भी याद है “सूरज पंख की चिड़िया”, “सौतेली बहनें” आदि आदि। इस समय हमारा ही आना नहीं हुआ करता था बल्कि दो मामा जी दिल्ली रहते वो और उनकी संताने भी आया करती। कुनवा बड़ा था तो एक दर्जन बन्दर सेना इक्कठा हो जाती थी और बड़ो को मुसीबत ना आये ऐसा हो सकता था क्या ?
क्रमशः

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