पात्र : स्व श्रीमती उत्तर शर्मा, श्रीमती सरोज शर्मा, राहुल कौशल, शिखर चौधरी और कई मित्रगण और सम्बन्धी....
13 दिसंबर 2008 मेरी माता जी (स्व श्रीमती उत्तरा शर्मा) की एक आँख में मोतियाबिंद था जिसकी सर्जरी हुई, डॉक्टर द्धारा कुछ 60 दिनों खाने-पीने परहेज बताया गया। जिसके बाद माता जी ने बड़ी शिद्दत के साथ इस कार्य को पूर्ण किया उसका नतीजा यह की माता जी स्वस्थ हो गई और आँख भी ठीक हो गई, लेकिन खाने का परहेज हमेशा ठीक नहीं रहता और अन्दर ही अन्दर एक तूफ़ान तैयार हो गया जिसका हमको कुछ महीने बाद पता चला जब माता जी बैठे बैठे सो जाया करती। सच तो यह था की वो एक प्रकार की बेहोशी हुआ करती जिसको हम यह सोच कर हलके में लेते रहे की काम करने की वजह से ज्यादा थकावट हो जाती है।
खैर यह एक प्रकार की अनीमिया की दिक्कत थी। जो अब तक शरीर में घर कर चुकी थी। माताजी का हिमोग्लोबिन 7 से नीचे आ गया, तब मैं साधना न्यूज़ में कार्यरत था छोटे भाई आसु का फोन आया की माता जी को लेकर हम ग्रेटर नॉएडा आ रहे है "कैलाश हॉस्पिटल"। मैं ऑफिस से सीधा वही पहुंचा और वहां हमने डॉक्टर को दिखाया जिसने माता जी को नॉएडा के लिए रेफर कर दिया।
नॉएडा में माता जी को कैलाश में एडमिट करने के बाद माता जी को तत्काल दो यूनिट ब्लड की चढ़ाई गयी जिसके बाद उनको 3 दिन की देखरेख के लिए रखा गया। हिमोग्लोबीन थोडा बढ़ा लेकिन उतना नहीं तब डॉक्टर मानस चटर्जी ने अन्य डॉक्टरों से सलाह कर समय अवधि को बड़ा दिया। पिता जी और छोटा भाई वापस बुलंदशहर चले गए। इस सारे प्रकरण में मेरी छोटी मामी जी श्रीमती सरोज शर्मा हमारे साथ थी।
उसके बाद सामने यह दिक्कत की कौन हॉस्पिटल में माँ को देखेगा और कौन नौकरी को तब मेरी मामी जी सरोज शर्मा ने दिन की जिम्मेदारी ली और कहाँ की घर पर मैं अकेली रहती हूँ 10 बजे आ जाया करुँगी मामा के साथ और शाम को चली जाया करुँगी। बड़ी सरल सी बात लगी लेकिन इस समर्पण में क्या छिपा था आप जानकार भावुक हो जायेंगे आपकी आँखों से गंगा यमुना बह जाएँगी मेरा यकीन है।
लगभग 26 दिन माता जी कैलाश में रही और लगभग 25 दिन मामी जी लगातार वहां समय पाबंद होकर आती रही उनके अनुसार उनको कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बाद में उनकी परिस्थितयो को समझ कर लगा की शायद मैं ऐसा ना कर पाऊं। रोजना सुबह मामाजी अपने ऑफिस और मेरी प्यारी बहन महिमा अपने कॉलेज जाते, उन दोनों को सुबह तैयार कराना उनके लिए नाश्ता और लंच पैक करना उसके बाद आठ बजे तक खुद तैयार होकर (ऊपर मैंने बताया की मामा जी के साथ आने की बात, सच यह था की मामा जी के ऑफिस का और उनका रुट अलग-अलग था, वो दो बस बदल कर साकेत से नॉएडा कैलाश आती थी) ब्लू लाइन बसों में सुबह की ऑफिस और कॉलेज जाने वालो की खचाखच भीड़ में आना वो भी समय पर अचरज भरा है बिना समर्पण भाव के नहीं किया जा सकता।
इसमें भी अपना और मेरा खाना लेकर आना और उस खाने में एक व्यक्ति का एक्स्ट्रा भोजन भी लाना क्योकि अस्पताल में माता जी को देखने आने वालो का ताँता लगा रहता था। उसके बाद शाम को वापस घर जाना वो भी मेरे आने के बाद। मेरे ऑफिस से अस्पताल तक भले ही 10 मिनट लगते हो लेकिन जरुरी नहीं हमेशा समय से ही ऑफिस से निकल पाया। इसबीच छोटी मोटी दिक्कत का तो मामी जी खुद सामना कर लिया करती थी। हाँ कही एक्सरे या बड़ी बात के लिए मेरी जरुरत होती तो मैं अस्पताल पहुंचकर अपने हस्ताक्षर करा करता।
कई बार माता जी को नहलाने का कार्य और उनकी सेवा मामी ऐसे की जैसे कोई बच्चे की देखभाल करता है, और सबसे बड़ी बात यह की आजतक उनके मुंह से कभी नहीं सुना की उनको कोई कष्ट हुआ हो। कष्ट झेलकर भी दुसरो को सुख पहुँचाना ही समर्पण है “खरा समर्पण”।
कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है कहानी का एक पात्र जो कभी कुछ बोला ही नहीं बस करता गया मेरा मित्र शिखर चौधरी मुझको ऑफिस ले जाना अस्पताल छोड़ना रात को जब मैं माँ की तकलीफ देखकर रोता तो साथ खड़े रहकर रात-रात भर मेरा साथ देना, कोई-कोई मित्र ही कर पता है। एक दिन ब्लड की जरुरत हुई कुछ मित्र ऑफिस से कुछ बुलंदशहर से आने वाले थे लेकिन थोडा देर हो रही थी तब हमारा यह मित्र ब्लड देने के लिए अड़ गया। हमारे भाई का तब शरीर जरा कमजोर था बड़ी मुश्किल से समझाने के बाद भाई माना। उसके बुलंदशहर, नॉएडा, दिल्ली और गाजियाबाद के साथ साधना ऑफिस के कई लोगो ने ब्लड दिया। यही समर्पण है “खरा समर्पण”।
मैं आप सभी लोगो का जो प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से मेरे साथ खड़े रहे को कभी नहीं भूलूंगा आपका सम्मान और आपके प्रति प्रेम हमेशा बनाये रखूँगा।
(बहुत नाम मैं इस कहानी में नहीं ले पाया हूँ उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ लेकिन मैं किसी भी व्यक्ति का किया हुआ कार्य नहीं भुला। बस यह जान ले की आपकी कहानी के पात्र आप है जब वो लिखी जाएगी तब और कोई नहीं होगा।)
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