शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

निकाय चुनाव: भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर

लखनऊ: स्थानीय निकाय चुनाव भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये चुनाव हर पांच साल में होते हैं, और वे नागरिकों को अपने स्थानीय क्षेत्रों के शासन में भाग लेने के लिए सशक्त बनाकर जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करते हैं। ऐसा ही एक चुनाव जिसने हाल के दिनों में काफी सुर्खियां बटोरी हैं, वह है उत्तर प्रदेश का निकाय चुनाव।

जनसंख्या के मामले में भारत का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश अक्टूबर 2023 में नगर निगमों, नगर परिषदों और नगर पंचायतों सहित राज्य के शहरी स्थानीय निकायों के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करने जा रहा है। राज्य में कुल 653 शहरी स्थानीय निकाय हैं, और चुनाव में बड़े पैमाने पर मतदान होने की उम्मीद है।

निकाय चुनाव विभिन्न कारणों से अत्यधिक महत्व रखता है। सबसे पहले, यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार की लोकप्रियता और प्रदर्शन के लिए एक लिटमस टेस्ट है। राज्य में पार्टी चार साल से अधिक समय से सत्ता में है, और चुनाव परिणाम सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को जनता की स्वीकृति या अस्वीकृति के बारे में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करेंगे।

दूसरे,  निकाय चुनाव विपक्षी दलों के लिए अपनी ताकत साबित करने और राज्य की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश हमेशा से ही भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण राज्य रहा है, और इन चुनावों को जीतने से विपक्षी दलों को 2024 में होने वाले आगामी लोकसभा चुनावों के लिए ऊर्जा मिल सकती है।

तीसरा,  निकाय चुनाव नागरिकों के लिए अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने और अपने स्थानीय क्षेत्रों के विकास के लिए काम करने वाले प्रतिनिधियों को चुनने का एक अवसर भी है। चुनाव लोगों को ऐसे नेताओं को चुनने की शक्ति देता है जो उनके दैनिक जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।

निकाय चुनाव के लिए चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, पहले चरण के लिए नामांकन किये जा चुके ही प्रचार जोर शोर से शुरू किया जा चुका है राज्य चुनाव आयोग ने चुनाव के कार्यक्रम और दिशानिर्देशों की घोषणा की है। आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किए हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए मतदान केंद्रों की संख्या भी बढ़ा दी है कि लोग बिना किसी परेशानी के अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग कर सकें।

इस साल निकाय चुनाव में भी कई तकनीकी प्रगति देखी जा रही है। राज्य सरकार ने नागरिकों को चुनाव प्रक्रिया में अधिक आसानी से भाग लेने में मदद करने के लिए ई-नामांकन सुविधा, ऑनलाइन मतदाता पंजीकरण और मोबाइल ऐप जैसी विभिन्न जन सुविधाएँ शुरू की हैं। इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी चुनाव प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, राजनीतिक दल और उम्मीदवार विभिन्न डिजिटल चैनलों के माध्यम से मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं।

अंत में,  निकाय चुनाव भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, और इसके परिणामों का राज्य की राजनीति और शासन पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। यह नागरिकों के लिए अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने और नेताओं का चुनाव करने का अवसर है जो अपने स्थानीय क्षेत्रों के विकास के लिए काम कर सकते हैं। यह राजनीतिक दलों के लिए अपनी ताकत साबित करने और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए शक्ति प्रदर्शन करने का एक अवसर भी है। अंतत: निकाय चुनाव भारत के लोकतंत्र की ताकत और लचीलेपन की परीक्षा है, और इसका सफल संचालन दूरगामी परिणाम लेकर आयेगा।

रविवार, 20 सितंबर 2020

विशुद्ध सत्य कथा : 4 - जूनून की हद तक चाहत बनी एनसीसी

11 वीं कक्षा की नगर के किसी विधालय में इंटर लेवल पर एनसीसी नहीं थी और हमे डिग्री कॉलेज में जाके सी सर्टिफिकेट लेने की देरी बर्दाश्त नहीं थी। राहुल कौशल और अनिल त्यागी सबसे पहले 41 वीं बटालियन गए और उस समय के कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल के के शर्मा जी से बात की। उन्होंने उनसे कहा की सर हमारे स्कूल को प्लाटून दिलाने का कष्ट करें, उन्होंने कहा की यदि कोई टीचर तैयार हो तो हम आवंटित कर सकते है लेकिन उसके पास सी सर्टिफिकेट होना चाहिए साथ ही आपके कॉलेज के प्रधानाचार्य का एनओसी।

बस दिमाग के फ्यूज उड़ गए की कैसे किया जाय समय भीकम है क्योकि 15 अगस्त से एनसीसी का सेशन शुरू हो जाता है। सबसे पहले स्कूल गए और टीचरों से से इस बाबत बात की लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। एनसीसी ज्वाइन करने का सपना अब सपना सा लगने लगा। कई दिन गुजने के बाद जूनियर वींग के एनओ श्री कृष्ण पाल सिंह जी ने कहा की एक व्यक्ति है जो सीनियर विंग का एनओ बन सकते है। उन्होंने बताया की श्री विनोद सिंह जी से बात करों और उनको मनाओ वही है जो सी सर्टिफिकेट होल्डर है और एनसीसी को चला भी सकते है।

हम तुरंत उनके पास गए क्योकि वो हमारे इंग्लिश के टीचर थे, हमनें उनसे सारी बात बता दी और उसके बाद उन्होंने हाँ कह दी लेकिन कभी-कभी कुछ काम अपनी अहमियत शुरू में ही दिखा देते है। कभी प्रधानाचार्य नहीं कभी सीओ नहीं बस इस तरह अगस्त की 5 तारीख आ गई तब जाकर हमारे प्यारे विधालय राजकीय इंटर कॉलेज बुलंदशहर के लिए 105 कैडेट्स की प्लाटून आबंटित हुई और हम सातवें आसमान पर खुशियाँ मनाने लगे। इस काम के लिए ना जाने साईकिल से कितने चक्कर एनसीसी ऑफिस के और स्कूल के लगे, ना जाने कितनी बार सीओ सर से कहा की आप ही कोई व्यवस्था करा दीजिये। ना जाने कितनी बार लगा की अब एनसीसी नहीं मिलेगी शायद सी सर्टिफिकेट करने का या आगे आर्मी में जाने का सपना पूरा नहीं होगा। खैर अब कोई दिक्कत नहीं थी आखिर एक पडाव पूरा हो गया था अब आगे की सोचनी है नयी लड़ाई लड़नी है।


उसके बाद शुरू होती है शुक्रवार और शनिवार को हमारी परेड जिसके लिये शर्ट, पेंट, बैल्ट, कैप और जूते बटालियन द्धारा भेजे गए। मेहनत का फायदा यह हुआ की मुझे अपने कॉलेज की एनसीसी टीम का सीनियर अंडर ऑफिसर बनाया गया। एनसीसी में कंधे पर लाल रंग की रैंक और उसपर काले रंग की दो पट्टियाँ पहनने का सपना हर किसी का होता है। मेरे साथ भानुप्रताप सिंह को अंडर ऑफिसर बनाया गया। अन्य मित्रों में अतीक अहमद, प्रभात वर्मा, अनवर खान, स्व० महेंद्र सिंह थे, एनसीसी एक ऐसी संस्था है जिसमें किसी से दोस्ती ना हो, हो नहीं सकता सभी के सभी मित्र बने और घनिष्ठ मित्र बनते चले गए।


उसके बाद एक कैम्प का आयोजन गाजियाबाद ग्रुप की ओर से किया गया जो बनवासा, टनकपुर एयरफ़ोर्स बेस पर लगाया गया। हमारी एक बस बुलंदशहर से चली और अलग अलग स्कूल के कैडेट्स को लेते हुए डिबाई पहुंची जहाँ से अपने कुछ और साथियो को लेते हुए बरेली, पीलीभीत होते हुए हम अपने कैम्प ग्राउंड तक पहुंचे लेकिन आपको बता दूँ रास्ते में कोई शादी होगी जिसमें हमारी बस के लडको ने चढत में डांस ना किया हो पुरे रास्ते, गाने, चुटकुले हुडदंग मचाते हुए हम बनबसा पहुंचे। 

क्रमशः

कैसे फायरिंग प्रतियोगिता में भाग लिया और सिल्वर जीता, कैसे रिपब्लिक डे कैम्प के लिए चुना गया आदि किसकी वजह से मंच पर बोलना सीखा और और रात को 2 बजे कैसे जागा पूरा कैम्प जिसमें 750 कैडेट्स और 300 अन्य अधिकारी, कर्मचारी और खाना बनाने वाले परेशान हुए, एक भूत की पहेली भी पढ़िए अगले अंको में.....

शनिवार, 12 सितंबर 2020

लालची, निष्ठुर मानव सभ्यता

राहुल कौशल

मानव सभ्यता कितनी निष्ठुर और मतलबी है यह इस बात से पता लगता है कि एक व्यक्ति का जब सितारा बुलंदी पर होता है तब उसे चाहने वालों की लाइन लगी होती है। उसे पसंद करने वालों का जमावड़ा लगा होता है।


लोग सर आंखों पर उसे बिठाते हैं लेकिन जब उस व्यक्ति का सितारा गर्दिश में चला जाता है। तब वही अपने लोग, जो कसमें वादे निभा कर उसे अपने साथ रखना चाहते थे या जो उसकी बदौलत आसमान की सीढ़ियां चढ़े थे या जो उसकी बदौलत अपना कैरियर बनाने में कामयाब हुए थे। वही लोग उसका साथ छोड़ देते हैं। वही लोग उसे मुफलिसी में जीने के लिए मजबूर कर देते हैं। वही लोग उसे भीख मांगने पर मजबूर कर देते हैं। वही लोग कैंसर जैसी बीमारी में उस व्यक्ति की पैसे मदद तो दूर स्नेह भरी नजरों से देखते भी नहीं कि एक बार स्नेह भरी नजर से देख कर उसका दर्द कम करदें। पैसे की मदद तो बहुत दूर रहे लोगों ने अंतिम समय में इन लोगों के साथ अमानवीय कृत्य किये गए। अकेले में यह लोग भूख से तड़पते हुए, शरीर में कीड़े पड़ जाने और चींटियों के चलने जैसी भयंकर अवस्था में रहे। पता होने पर भी कोई अपना पराया मिलने नही गया।

किसी की मौत अंधकार भरे कमरे हुई, तो कोई फुटपाथ पर सड गल गया तो कोई आज भी अटलांटा के पागल खाने में मौत से लड़ रहा है।जब इतना बड़ा बॉलीवुड इतनी बड़ी मानव सभ्यता इनके काम नहीं आई। तो आप सोचते हैं वह आपके काम आएगी, कभी नहीं आएगी। जब तक आपसे रस निकलता रहेगा तब तक आप को नहीं छोड़ेंगे, लेकिन जैसे ही आप से रस निकलना बंद हो जाएगा तो आपको सूखे गन्ने की खोई की तरह जलने के लिए आग में या सड़ने के लिए कुड़े में फेंक दिया जाएगा।

निशा नूर, परवीन बॉबी, विन्नी (अप्सरा की तरह आकर्षक), दिव्या भारती, भारत भूषण (केंसर से मौत), नलिनी जयवंत, गैविन पैकर्ड (संजय दत्त सलमान के बॉडीगार्ड को ट्रेन किया), ए के हंगल, भगवान दादा (27 कमरों का जुहू में मकान), राज किरण, सीताराम पांचाल, कुकू मोरे (कैबरे डांसर हेलन की रिलेटिव, हेलन को बनाने वाली), श्रीवल्लभ व्यास, अचला सचदेवा, जगदीश (बॉलीवुड फोटोग्राफर)।

रविवार, 1 मार्च 2020

मां की परिभाषा "मां" होती है

किलकारी तेरे आंगन में जब नहीं गूंजी थी सालों तक
जग के तानों को सुनकर तू घुट-घुट कर रह जाती थी
मां मेरी मंदिर-मंदिर की चौखट तूने नंगे पैरों से नापी थी
डॉक्टर, वैध जगत के तूने देख लिए सब सारे थे
तब ईश्वर की कृपा से मैं कोख में तेरी आया था

तू पेट के बल सोया करती थी अब तूने वो छोड़ दिया
मेरे खातिर अब मेरी माँ बिस्तर से धीरे उठती है
मुझे कष्ट ना हो जाय धीरे से वो अब चलती है
जानता हूंं  कुछ चीजों से तुझको नफरत है खाने में
लेकिन मेरे पोषण को तूू सहज उन्हें भी खा लेती हैं
कुछ ऐसी पसंद की चीजें थी जो मेरे लिए तूने छोड़ी है

तू नाजुक सी एक फूल परी है जिसने बोझा मेरा ढोया है
नौ महीने की कठोर यात्रा में मुझको पल्लवित कर डाला है
कष्ट असहनीय हुआ तुझे था, मुझे देख मुस्काई थी
मुझे गोद में लेकर तू घूंट कष्ट का पी गयी थी
कच्ची मिट्टी के इस घट को तूने मानव बना डाला था
दुल्हन के चक्कर में मैंने कष्ट तुझे बहुत पहुंचाया था

तेरे बनाये आंगन से दूर तुझे मैंने ही कर डाला था
कुत्ते बिल्ली पाले थे मैने उनको दूध पिलाया था
मां की दो रोटी पर मैनें हो हल्ला खूब मचाया था
तेरे सुहाग के गहनों को मैनें गिरबी रखवाया था
मोह सुंदरी बीबी को पैंडल नेकल्स दिलवाया था
तुझको नौकर जैसे रख पल पल तुझे सताया था

तेरा बेटा होकर भी मां मैं कर्मों से निकृष्ठ कहलाया हूं
मुझको क्षमा तू कर देना मैं पाप बहुत कर आया हूँ
मुझको दोजख भेजेगा ईश्वर ऐसा करम कर आया हूँ
अगले जन्म मां तू ही बने मेरी ऐसी इच्छा कर आया हूँ
जो गलती मुझसे हो गयी उसको सुधारु यह प्रण ले आया हूँ
मां, मां होती यह परिभाषा अब जाकर समझ पाया हूँ.....

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

क्रांति के हवन कुंड में जनपद की आहुति


राहुल कौशल


यह सत्य कथा सन 1857 की क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेजो द्धारा किये जुल्मों सितम की है। अंग्रेज सेना के अत्याचारों से परेशान और भयग्रस्त जनपद के मलागढ़ क्षेत्र के लोग अनूपशहर के पास के जंगलों में पड़े हुए थे उस समय वहां से कुछ ही दूर अंग्रेज सैनिको की टुकड़ी आ जाने से आसपास के गाँव में आना और रसद सामग्री ले जाना मुश्किल हो गया था। एक दिन पुरुष रसद सामग्री लेने के लिए दूर तक निकल गए। केवल स्त्रियाँ पेड़ों के नीचे बैठी हुई अपने कपड़ों की मरम्मत कर रही थी। तभी पास के गाँव के एक 14 वर्षीय लड़के ने आकर कहा कि कुछ सिपाही इधर की ओर आ रहे है। इतना कह कर वह लड़का भाग गया। सभी स्त्रियाँ हक्की बक्की होकर खड़ी हो गई। इतने में लालबीबी की आवाज आई की कुछ अंग्रेज सैनिक उधर की ओअर आ रहे है। जब कुछ महिलाए अपने समान एकत्र कर रही थी तभी कुछ लड़कियां भाले, कुल्हाड़ी आदि ले आई। अंग्रेज सैनिक सहम गए और इतने में अन्य महिलायें भी अपने हाथों में हथियार उठा लाई। सैनिको के हाव भाव से प्रतीत हो रहा था की वो उनको मारने के मकसद से नहीं बल्कि उनके साथ वलात्कार जैसी जघन्य धटना को अंजाम देने आये थे।

जब यह घटना हो रही थी तब स्त्रियों का हल्ला सुनकर पास के गाँव के ग्वाले अपनी गाय और बैलों को भागकर उधर ले आये। यह बेजुबान पशु भी स्त्रियों की लाज के लिए शत्रुओ पर टूट पड़े। पशुओ के आचानक हुए इस हमले से वो सभी सैनिक भाग खड़े हुए और स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा हुई। भागते समय ही अन्य पुरुष भी आ चुके थे जिनके हमले में अंग्रेज सैनिक मार दिए गए और उनका गोला बारूद जब्त कर लिया गया।

यह घटना होने के बाद लोगों ने सोचा की की निश्चय ही शत्रु बदला लेने अवश्य आएगा। आक्रमण की आशंका के मद्देनजर उन सभी लोगो ने डेरा उठाकर कगारों में स्त्रियों और बच्चों को छिपा दिया और खुद मोर्चाबंदी करके बैठ गए। साथ ही कुछ पुरुष पेड़ो पर चढ़ गए ताकि दूर से ही उनके आने की पता लग सकें। शाम होते होते खबर मिली की क्रीतदास हिन्दुस्तानी और गोर सिपाहियों का एक दल इधर ही आ रहा है।

जब अंग्रेजों को देशभक्तों से मुंह की खानी पड़ी तो उसके बाद अंग्रेज किस तरह से कहर बरपाते थे यह रात्रि उस बात की गवाह है। शाम धीरे-धीरे गुप अँधेरे से युक्त रात्रि में बदल गई। बस फिर क्या था चहुंओर से अंग्रेज सैनिको की बंदूकें गरज उठी। स्त्रियाँ भविष्य की आशंकाओ से ग्रस्त होकर सोचते हुए कांपने लगी। लड़ाई लड़ने के लिए गए लोगो की वापसी को लेकर बुरे बुरे ख्याल आ रहे थे। क्या वह शत्रु द्धारा मरे तो नहीं गए ? क्या वह जीवित है ? क्या घरवालो का मुंह देखे बिना मरना होगा ? कभी सोचती निकलकर देखे की क्या स्थिति है लेकिन वहां से ना निकलने के कड़े आदेश थे। करीब दो घंटो के बाद बन्दुकों की गर्जना रुक गयी।कुछ समय बाद वहां कुछ लोग हथियार और कारतूस, वर्दी आदि लेकर आये और स्त्रियों के पास रख दिए। उन लोगोने बताया की शत्रुओ की एक टुकड़ी का सफाया कर दिया गया है, लड़ाई अभी भी चल रही है। उन्होंने बताया की घबराने की कोई बात नहीं है सब लोग साथ है धैर्य बनाये रखों।

बार बार हो रहे हमलों को देखते हुए वहां से सभी ने कूच करना ठीक समझा, उनके साथ आसपास के भयग्रस्त लोग भी सम्मलित हो गए। लोगो ने सभी बर्दियाँ पहन ली और जो लड़ने में सक्षम थे उन्होंने बन्दुक ले ली। यह लोग रात्रि में ही चलते और दिन में रुककर आराम करते। घोड़ो पर सवार लोग आगे का निरिक्षण करते रहते थे। उनकी खबर के आधार पर आगे बढ़ने और रुकने का फैसला किया जाता था। वर्दी पहने होने के कारण रास्ते के लोग उनको सरकारी लोग ही समझते थे।

एक दिन रस्ते में चलते हुए टुकड़ी को समाचार मिला की पास के गाँव में अंग्रेजों की फौजी टुकड़ी ने पैशाचिक विध्वश किया है। फौजी टुकड़ी ने गाँव में आग लगा दी है, गाँव धू-धूकर जल रहा है। मारे गए बच्चों, स्त्रियों, बालक-बालिकाओं की लाशें जहाँ-तहां बिखरी हुई है। पूछने पर पता चला की उस गाँव ने विद्रोह में भाग नहीं लिया लेकिन फिर भी उस गाँव में मदांध अंग्रेजो ने और उनके पिछलग्गू भारतीय सैनिको ने विनाशलीला की थी। इस प्रकार ना जाने जनपद के कितने ही गाँव रक्तरंजित कर दिए गए, उन्हें आग के हवाले कर दिया गया, महिलाओं के साथ बलात्संग जैसे राक्षसी कुकृत्य किये गए। हमारा जनपद भी क्रांति के हवन कुंड में अपनी आहुति देने से पीछे नहीं रहा।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

हुक्के की गुड़गुडाहट में हो जाते थे बड़े-बड़े फैसले



राहुल कौशल
गाँव की चौपाल में हुक्के की गुड़गुडाहट क्या बंद हुई, थाना और कचहरी में गाँवों के विवादों की तादाद बढती चली गई। ज्यादा पुरानी बात नहीं है दो ढाई दशक पूर्व तक गाँव-देहात में हुक्के के साथ लगने वाली चौपाल गाँव के छोटे ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े मसलों को हल कर दिया करती थी। गाँवों की सरलता और मेलजोल को शहरों की चमक-दमक लील गई है। शहरों की गलत बातों का प्रभाव आज गाँव-देहात की संस्कृति को पथभ्रष्ट कर रहा है। जिसके कारण नई पीढ़ी में एक दूसरे के प्रति प्रेम और सद्भाव की जगह वैमनस्य और कटुता ने ले ली है। हमारी संस्कृति में परिवार के मुखिया और चौपाल के मुखिया को विशेष दर्जा प्राप्त था, इनकी बातों को सभी अमल में लाते थे। लेकिन समय के साथ आ रहे बदलावों के कारण संयुक्त परिवार और चौपाल का न्याय, किस्से कहानियों में तब्दील होता जा रहा है।


और इसके कारण समाज पर सबसे बड़ा प्रभाव यह हो रहा है कि जहाँ कई मसले जैसे लड़ाईयां, मनमुटाव, खेतों की सीमा रेखा का विवाद, शादी संबंधी विवाद आदि चौपाल पर हुक्के की गुड़गुडाहट के साथ सुलझा लिए जाते थे। दोनों पक्षों का मानसिक और आर्थिक शोषण नहीं होता था, आज थानों और कचहरी में यह मामूली से दिखने वाले झगड़े, मुकदमो का रूप ले लेते है और परिवार के परिवार अपना सब कुछ मुकदमें बाजी में कंगाल हो जाते हैं।
ध्यानार्थ : हम यहाँ तम्बाकू उत्पाद को प्रोत्साहित नहीं कर रहे है बल्कि समाज के ताने-बाने से निकली उस धुन को सुना रहे है जो मनमोहक और समस्या का हल प्रदत्त करती थी। कहते है शीरे में तैयार किया गया तम्बाकू पेट की गैस और हाजमे के लिए राम बाण का कार्य करता था। अब ना तो परिवार और समाज में बात होती है ना ही पेट में बात घूमती है।

वैदिक काल
पंचायतों का प्रदुभाव वैदिक काल में ही हो गया था। ग्राम के प्रमुख को ग्रामणी कहते थे। उत्तर वैदिक काल में भी यह होता था जिसके माध्यम से राजा ग्राम पर शासन करता था। बौद्धकालीन ग्राम परिषद् में "ग्राम वृद्ध" सम्मिलित होते थे। इनके प्रमुख को "ग्रामभोजक" कहते थे। कृषि भूमि की व्यवस्था परिषद् अथवा पंचायत करती थी तथा ग्राम में शांति और सुरक्षा बनाए रखने में ग्रामभोजक की सहायता करती थी। जनहित के कार्यों को यही तंत्र संभालता था। चाणक्य ने ग्राम को राजनीती की इकाई माना है। "अर्थशास्त्र" का "ग्रामिक" ग्राम का प्रमुख होता था जिसे कितने ही अधिकार प्राप्त थे। ग्राम की एक सार्वजनिक निधि भी होती थी जिसमें जुर्माने, दंड आदि से धन आता था। इस प्रकार ग्रामिक और ग्राम पंचायत के अधिकार और कर्तव्य सम्मिलित थे जिनकी अवहेलना दंडनीय थी। गुप्तकाल में ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई था जिसके प्रमुख को "ग्रामिक" कहते थे। वह "पंचमंडल" अथवा पंचायत की सहायता से ग्राम का शासन चलाता था। उस समय में पंचायत के सदस्यों को "ग्रामवृद्ध" कहा जाता था। हर्ष ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया। उसके समय में राज्य "भुक्ति" (प्रांत), "विषय" (जिला) और "ग्राम" में विभक्त था।

पंचायतो के द्धारा किये गए जनसुधार के निर्णय
1 - मध्य प्रदेश के डिंडौरी की डुलहरी ग्राम पंचायत ने समाज हित में ऐसा फैसला लिया जो एक मिसाल से कम नहीं। बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती के मौके पर आयोजित विशेष ग्राम सभा के दौरान पंचायत ने फैसला सुनाया कि गांव का जो भी शख्स बच्चों का बाल विवाह करवाएगा उसे समाज से बहिष्कृत किया जाएगा। ना केवल बहिष्कार किया जाएगा बल्कि भारी भरकम जुर्माना भी देना पड़ेगा और गांव का जो भी व्यक्ति समाज से बहिष्कृत शख्स से संबंध रखेगा उसे भी समाज से निष्कासित कर दिया जाएगा। पंचायत ने सभी गांव वालों को शपथ भी दिलाई। ग्रामीणों ने इस फैसले का स्वागत किया है। पंचायत को ये फैसला इसलिए लेना पड़ा क्योंकि गांव के कई लोग चोरी छुपे बच्चों की शादियां करवाते है। कई बार समझाईश देने के बाद भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा बंद नहीं हुई तो अब सख्ती की गई है।
2 - हिसार: एक पंचायत ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला लिया है। इस फैसले के अंतर्गत बाहरवीं क्लास में अव्वल आने वाली बेटी को एक दिन की सरपंच बनाया जाएगा। उस दिन वह जितने फैसले करेगी उन पर सरकारी और गांव की तरफ से भी मुहर लगेगी। गांव के इस फैसले से गांव की बेटियों में जोश और बेहद खुशी है। उनका कहना है कि इससे बेटियां स्वावलंबी तो बनेंगी हीं साथ ही उनमें हौसला भी बढ़ेगा।
3 - जींद (हरियाणा): शराब के कारण लोगों में हो रहे आपसी झगड़ों से सबक लेते हुए गांव हंसडैहर के ग्रामीणों ने ऐतिहासिक फैसला लिया कि गांव में शराब नहीं बिकने दी जायेगी। इसके लिए गांव के बिन्दुसर तीर्थ के प्रांगण में ग्राम पंचायत की बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता सरपंच पिंकी देवी ने की। बैठक में गांव के लोगों ने कहा कि नशाखोरी के कारण गांव का माहौल खराब रहता है। इससे आपसी लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं, जिसका खामियाजा बच्चों और बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है। ग्रामीणों का कहना है कि गांव में कई जगहों पर अवैध शराब बिकती है। इस बिक्री को गाँव के लोग मिलकर रोकेंगे।
4सोनीपत : ओलंपियन पहलवान योगेश्वर दत्त के गांव भैंसवाल के ग्रामीणों ने गांव में पंचायत कर एक पहल करते हुए भविष्य में अपने बच्चों को निजी नहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का फैसला लिया है। इस के बदले में ग्रामीणों ने सरकार से स्कूलों में सुविधाओं के साथ स्टॉफ पूरा करने की मांग की है जिसमें स्कूल के डीडीओ राजेंद्र सिंह ने पहल की तथा गांव वालों को एकत्र कर सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराने का आग्रह किया।
कई बार पंचायत तुगलकी फरमान भी दे देती है लेकिन समाज में सुधार लाकर लोगों को प्रोत्साहित करके बदलाव लाया जा सकता है। आज थानों और कचहरी में लंबित पड़े मामलों को जल्दी से सुलटाने के लिए दुबारा से ग्राम इकाई पर पंचायत के फैसलों की व्यवस्था होनी जरुरी है लेकिन कुछ नियमों के साथ ताकि कोई पक्षपात ना कर सके। किसी मजबूर का उत्पीडन ना हो सकें और कोई मानसिक और आर्थिक पचड़ों में ना पड़े। क्योकि किसान खेती करें या कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाकर अपनी कमाई बर्बाद करें ?
तब हम कह सकेंगे की भारत सच में गावों और किसानो का देश है। और....... हुक्के की गुड़गुडाहट में यूँही फैसले हो जाते है।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

बक्श दो मुझ, यदि किसानों का विकास चाहते हो...


राहुल कौशल 
16/10/2015 में एक स्टोरी सपा शासन में लिख चूका हूँ और आज फिर मेरी पीड़ा मुझे यह करने के लीयते मजबूर कर रही है।
आज का अपडेट लेख
 Photo 01 तहसील परिसर और कार्यलय, 02 नया बस स्टैंड, 03 कशी राम आवास जो कई सालों से खाली पड़े जर्जर हालत में हो गए है और 04, ट्रांजिस्ट होस्टल और उसके बगल में बरन पार्क जो कागजों में ही बना... 
जनपद की जनता के लिए एक अच्छी खबर है। राजकीय मेडिकल कॉलेज का रास्ता साफ हो गया है। गांव चांदपुर में कृषि विद्यालय की जमीन चिकित्सा शिक्षा विभाग को हस्तांतरित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। 336 बेड के बनने वाले इस मेडिकल कॉलेज में लोगों को आधुनिक चिकित्सा का लाभ मिलेगा।
इस खबर से मैं बुलंदशहर का एक नागरिक होने के नाते समर्थन करता हूँ और बेेहद खुश हूँ लेकिन एक बहुत बड़ी समस्या है सन 1920 के आसपास सदर के कुछ गाँव (चांदपुर, दोस्तपुर आदि) के किसानों से उनकी भूमि अंग्रेज अधिकारियों ने इस बाबत ली थी यह एक ऐसा प्रक्षेत्र केंद्र होगा जहाँ से किसानों को उचित मूल्य पर शुद्ध और स्वस्छ बीच उपलब्ध कराया जायेगा। यह प्रक्षेत्र लगभग 700 बीघे का हुआ करता था, लेकिन आज एक विधवा की तरह बेरंग हो गया है। आपको कही काशीराम आवास मिलेंगे जो बच्चों के खेलने की जगह पर बना दिए गए।
गायों का जहाँ चारा उगाया जाता वहां भी इन कंक्रीट के जंगलों को खड़ा कर दिए गया। दूरी ओर तहसील सैकड़ों बीघा जमीन को निगल गई,  कही ट्रांजिस्ट होस्टल, तो कही बस स्टैंड और सरदार पटेल कृषि विज्ञान केंद्र के नाम पर जमीन आज 400 बीघा ही रह गई है। कृषि विभाग की जमीन का सत्यानाश उस समय के कृषि अधिकारियों, जिलाधिकारियों और शासन द्धारा कर दिया गया है। जबकि यह केंद्र किसानों को उन्नत बीज दिलवाने के लिए, किसानों से ही जमीन लेकर शुरू किया गया था। आज इस विभागीय परिसर को नोच-नोच कर बदरंग कर दिया गया है, कह सकते है कि यह एक प्रकार का दुराचार ही तो है, जिसके जिम्मेदार आप हम सब है।

आप सभी से अनुरोध है इसे अब और बदरंग ना बनाये

यह मेरा किसी व्यक्ति, नेता, मंत्री या बड़े आदरणीय का विरोध नहीं है, बल्कि एक अनुरोध है बुलंदशहर का एक जिम्मेदार नागरिक के नाते, एक कार्यकर्ता होने के नाते और इस कॉलोनी में अपने जीवन का प्रारंभ करने वाले युवा के नाते।
कई लोग सवाल करेंगे की मेडिकल कॉलेज कहा बनाये ? तो यदि हम भविष्य की सोचे तो समाधान एक दम मुफीद है कृषि विधालय के सामने ही सिंचाई विभाग की एक उजाड़ कॉलोनी बनी हुई है वहां न कोई खेती करता है ना कोई इस आवसीय खंड में रहता है ना ही कोई कार्य हो रहा है इस जमीन पर कभी कब्रिस्तान, कभी अवैध निर्माण कर कब्ज़ा किया जा रहा है। हमारी सरकार की नियत चूँकि भ्रष्टता के खिलाफ है तो यह जमीन सही रहेगी इसका प्रयोग हो पायेगा जो नहीं हो रहा है।
दूसरा आप्शन है चाँदमारी जो नैथला से 1.5 किलोमीटर आगे नवादा ग्राम के सामने बनी चांदमारी फायरिंग रेंज करीब 60-70 बीघा  जमीं जो उसर  पड़ी है और जहाँ कलेक्ट्रेट का कार्यलय, मेडिकल कॉलेज के साथ देहात पुलिस का विकसित और मल्टीप्लेक्स कंट्रोल रूम बनाया जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो हम बिना किसी उपजाऊ जगह को नुक्सान पहुंचे चोला और झाझर जैसे गाँव देहात को शहरीकरण से जोड़ पाएंगे बल्कि जिले का विकास गाँव देहात तक पहुंचा पाएंगे। लेकिन यदि आप कृषि भूमि की कब्र खोद कर उसपर निर्माण करेंगे तो यह सिर्फ सदर में ही सिमट कर रह जायेगा। इससे फायदा सिर्फ इतना होगा की शहर में भीड़ बढ़ेगी और प्लोटिंग की जमीन का मूल्य आसमान छुएगा जबकि यह मेडिकल कॉलेज चांदमारी पर खुला तो सरकार की खाली पड़ी जमीन का सदुपयोग होगा साथ ही गाँव देहात इस मेडिकल कॉलेज की वजह से रोजगार पा सकेंगे बल्कि उनकी भूमि का मूल्य भी बढेगा। सबसे बड़ा फायदा यह होगा की कृषि विभाग निरंतर किसानों को निर्वाध रूप से बीज उपलब्ध करा सकेगा।

लोगों ने मेरी हरियाली को भी नोच लिया

बुलंदशहर। राजकीय कृषि विधालय जो कभी अपनी सुन्दरता और हरियाली के लिए जाना जाता था आज उसकी इस नियामत को उसके अपने अधिकारी ही तबाह करने पर तुले हुए है। आपको बताते चले की राजकीय कृषि विधालय के प्रधानाचार्य के आवास के ठीक बिलकुल सामने एक पार्क हुआ करता था जोकि अब गाड़ियाँ खड़ी करने की जगह में तब्दील कर दिया गया है। सन 1988 में उस समय के प्रधानाचार्य खां साहब ने पूरे राजकीय कृषि विधालय परिसर में दर्जनों पाम के पेड़ लगवाये थे, जो उस समय भी बहुत महंगे आये थे। लगभग 25 साल पुराने पेड़ो की वर्तमान समय में लाखो की कीमत है क्योकि 10 फिट के पाम की कीमत बाजार में लगभग 1000 डॉलर है। इन खुबसूरत पेड़ों को वर्तमान प्राचार्य के आदेश के बाद काट कर कूड़े के ढेर में फैक दिया गया है। आज से तीन साल पहले भी आये एक प्रधानाचार्य ने प्रधानाचार्य आवास के चारो ओर लगी सुन्दर हैज को उखडवा कर दीवार खड़ी कर दी थी। पेड़ो को काट कर प्रकृति के साथ गुनाह करने वालो को क्या कोई सजा नहीं मिलती। काफी साल पहले लगे मात्र दो चन्दन के पेड़ों को भी बिना किसी को पता चले काट गप्प कर लिया गया।
रुदन कर रही है प्रकृति और सिसकते हुए कह रही है की मुझको समय से पहले मरने से बचा लीजिये कही ऐसा ना हो की मेरी मौत कई मौतों का कारण बन जाये!

दुराचार हो रहा है कृषि विभाग के साथ

700 बीघे का प्रक्षेत्र आज एक विधवा की तरह बेरंग हो गया है। आपको कही काशीराम आवास मिलेंगे जो बच्चों के खेलने की जगह और गायों के चारा उगाने की जगह खड़े कर दिए गए। दूरी ओर तहसील, ट्रांजिस्ट होस्टल, बस स्टैंड और सरदार पटेल कृषि विज्ञान केंद्र के नाम पर बीघों जमीन का सत्यानाश तत्कालीन कृषि अधिकारियों, जिलाधिकारियों और शासन द्धारा कर दिया गया है। जबकि यह केंद्र किसानों को उन्नत बीज दिलवाने के लिए किसानों से जमीन लेकर शुरू किया गया था। आज इस विभागीय परिसर को नोच-नोच कर बदरंग कर दिया है, कह सकते है कि यह दुराचार ही तो है, जिसके जिम्मेदार आप हम सब है।


बुधवार, 19 अप्रैल 2017

विशुद्ध कथा भाग 3 ""खरा समर्पण""

पात्र : स्व श्रीमती उत्तर शर्मा, श्रीमती सरोज शर्मा, राहुल कौशल, शिखर चौधरी और कई मित्रगण और सम्बन्धी....
13 दिसंबर 2008 मेरी माता जी (स्व श्रीमती उत्तरा शर्मा) की एक आँख में मोतियाबिंद था जिसकी सर्जरी हुई, डॉक्टर द्धारा कुछ 60 दिनों खाने-पीने परहेज बताया गया। जिसके बाद माता जी ने बड़ी शिद्दत के साथ इस कार्य को पूर्ण किया उसका नतीजा यह की माता जी स्वस्थ हो गई और आँख भी ठीक हो गई, लेकिन खाने का परहेज हमेशा ठीक नहीं रहता और अन्दर ही अन्दर एक तूफ़ान तैयार हो गया जिसका हमको कुछ महीने बाद पता चला जब माता जी बैठे बैठे सो जाया करती। सच तो यह था की वो एक प्रकार की बेहोशी हुआ करती जिसको हम यह सोच कर हलके में लेते रहे की काम करने की वजह से ज्यादा थकावट हो जाती है।
खैर यह एक प्रकार की अनीमिया की दिक्कत थी। जो अब तक शरीर में घर कर चुकी थी। माताजी का हिमोग्लोबिन 7 से नीचे आ गया, तब मैं साधना न्यूज़ में कार्यरत था छोटे भाई आसु का फोन आया की माता जी को लेकर हम ग्रेटर नॉएडा आ रहे है "कैलाश हॉस्पिटल"। मैं ऑफिस से सीधा वही पहुंचा और वहां हमने डॉक्टर को दिखाया जिसने माता जी को नॉएडा के लिए रेफर कर दिया।
नॉएडा में माता जी को कैलाश में एडमिट करने के बाद माता जी को तत्काल दो यूनिट ब्लड की चढ़ाई गयी जिसके बाद उनको 3 दिन की देखरेख के लिए रखा गया। हिमोग्लोबीन थोडा बढ़ा लेकिन उतना नहीं तब डॉक्टर मानस चटर्जी ने अन्य डॉक्टरों से सलाह कर समय अवधि को बड़ा दिया। पिता जी और छोटा भाई वापस बुलंदशहर चले गए। इस सारे प्रकरण में मेरी छोटी मामी जी श्रीमती सरोज शर्मा हमारे साथ थी।
उसके बाद सामने यह दिक्कत की कौन हॉस्पिटल में माँ को देखेगा और कौन नौकरी को तब मेरी मामी जी सरोज शर्मा ने दिन की जिम्मेदारी ली और कहाँ की घर पर मैं अकेली रहती हूँ 10 बजे आ जाया करुँगी मामा के साथ और शाम को चली जाया करुँगी। बड़ी सरल सी बात लगी लेकिन इस समर्पण में क्या छिपा था आप जानकार भावुक हो जायेंगे आपकी आँखों से गंगा यमुना बह जाएँगी मेरा यकीन है।
लगभग 26 दिन माता जी कैलाश में रही और लगभग 25 दिन मामी जी लगातार वहां समय पाबंद होकर आती रही उनके अनुसार उनको कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बाद में उनकी परिस्थितयो को समझ कर लगा की शायद मैं ऐसा ना कर पाऊं। रोजना सुबह मामाजी अपने ऑफिस और मेरी प्यारी बहन महिमा अपने कॉलेज जाते, उन दोनों को सुबह तैयार कराना उनके लिए नाश्ता और लंच पैक करना उसके बाद आठ बजे तक खुद तैयार होकर (ऊपर मैंने बताया की मामा जी के साथ आने की बात, सच यह था की मामा जी के ऑफिस का और उनका रुट अलग-अलग था, वो दो बस बदल कर साकेत से नॉएडा कैलाश आती थी) ब्लू लाइन बसों में सुबह की ऑफिस और कॉलेज जाने वालो की खचाखच भीड़ में आना वो भी समय पर अचरज भरा है बिना समर्पण भाव के नहीं किया जा सकता।
इसमें भी अपना और मेरा खाना लेकर आना और उस खाने में एक व्यक्ति का एक्स्ट्रा भोजन भी लाना क्योकि अस्पताल में माता जी को देखने आने वालो का ताँता लगा रहता था। उसके बाद शाम को वापस घर जाना वो भी मेरे आने के बाद। मेरे ऑफिस से अस्पताल तक भले ही 10 मिनट लगते हो लेकिन जरुरी नहीं हमेशा समय से ही ऑफिस से निकल पाया। इसबीच छोटी मोटी दिक्कत का तो मामी जी खुद सामना कर लिया करती थी। हाँ कही एक्सरे या बड़ी बात के लिए मेरी जरुरत होती तो मैं अस्पताल पहुंचकर अपने हस्ताक्षर करा करता।
कई बार माता जी को नहलाने का कार्य और उनकी सेवा मामी ऐसे की जैसे कोई बच्चे की देखभाल करता है, और सबसे बड़ी बात यह की आजतक उनके मुंह से कभी नहीं सुना की उनको कोई कष्ट हुआ हो। कष्ट झेलकर भी दुसरो को सुख पहुँचाना ही समर्पण है “खरा समर्पण”।
कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है कहानी का एक पात्र जो कभी कुछ बोला ही नहीं बस करता गया मेरा मित्र शिखर चौधरी मुझको ऑफिस ले जाना अस्पताल छोड़ना रात को जब मैं माँ की तकलीफ देखकर रोता तो साथ खड़े रहकर रात-रात भर मेरा साथ देना, कोई-कोई मित्र ही कर पता है। एक दिन ब्लड की जरुरत हुई कुछ मित्र ऑफिस से कुछ बुलंदशहर से आने वाले थे लेकिन थोडा देर हो रही थी तब हमारा यह मित्र ब्लड देने के लिए अड़ गया। हमारे भाई का तब शरीर जरा कमजोर था बड़ी मुश्किल से समझाने के बाद भाई माना। उसके बुलंदशहर, नॉएडा, दिल्ली और गाजियाबाद के साथ साधना ऑफिस के कई लोगो ने ब्लड दिया। यही समर्पण है “खरा समर्पण”।
मैं आप सभी लोगो का जो प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से मेरे साथ खड़े रहे को कभी नहीं भूलूंगा आपका सम्मान और आपके प्रति प्रेम हमेशा बनाये रखूँगा।
(बहुत नाम मैं इस कहानी में नहीं ले पाया हूँ उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ लेकिन मैं किसी भी व्यक्ति का किया हुआ कार्य नहीं भुला। बस यह जान ले की आपकी कहानी के पात्र आप है जब वो लिखी जाएगी तब और कोई नहीं होगा।)

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ -- भाग दो

बात कब की है यह नहीं मालूम लेकिन यह याद है की यह एक सांस्कारिक कार्यक्रम है। सुबह सबेरे हमारे सबसे शरारती मामा जी स्व0 श्री महेंद्र शर्मा सोते हुए सब बच्चो की चादरें खींचकर जगाने लगते और सबसे मजे लेतेेे और कहते की नेस्तियो उठ जाओ सुबह का सूरज चढ़ आया। सच मानिये सुबह के 5 या 6 बजे वो भी जाड़ो में किस कदर बुरा लगता है आप समझ सकते है और यह हाल सभी का होता लेकिन जितने मामाजी मजाकिया थे उतने ही गुस्से वाले भी थे, प्यार का आलम यह की आपके लिए कुछ भी कर जाय, एक किस्सा उनका सुनाता हूँ सुनिए
“एक बार बच्चो का मतलब हम सब का मन खरबूजे खाने को हुआ तो शायद 25 किलो खरबूजे एक बोर में खरीद कर ले आये और जो फीका निकलता उसको फैंकते जाते की भैंस खा लेंगी, और हुआ यह की एक दो को छोड़कर कोई मीठा नहीं निकला तो बोले अबे सारे नहीं फैकने है कुछ को बुरा लगाओ और खा लो।“
खैर बात वही से शुरू करते है। उठाने के बाद सभी लडके घर के वफादार विक्की (जर्मनशेफर्ड कुत्ता) को लेकर खेतो पर निकल जाते है जहाँ नित्य क्रिया से निवृत होकर रसगुल्ला नाम का गन्ना खाते फिर वापस घर आकर नहाते और सुबह-सुबह का स्वादिष्ट भोजन मक्खन और मठ्ठे के साथ लेते। यह एक परिवार का एक दूसरे के प्रति प्यार ही तो था की जिसको रात्रि में डिबियां जलानी है वो बिना किसी देरी के यह कार्य करेगा और जिसको जानवर बाँधने है वो बांधेगा, जिसको ताले लगाने है वो ही लगाएगा बिना किसी परिवर्तन के। असली मजा इस कार्यक्रम में यह था की सोने के लिए रथखाना (एक बड़ा सा कमरा) होता जहाँ गन्ने की तुड़ी बिछा कर उनके ऊपर दरे, फिर गद्दे और अंत में चादर का बिछौना बनाया जाता। जहाँ सभी लडके और पुरुष एक साथ सोते। पहले गप्पे लगाय जाते फिर मूंगफली खाई जाती, हाँ कोई-कोई मेरी तरह रबड़ी का स्वाद भी लेता और सोने से पहले गुड और हंडिया का लाल वाला दूध मलाई मारके पी जाता था।
हमारी दो मामियां लग जाती खाना बनाने में लग जाती और एक दो का नहीं बल्कि 30 से 40 लोगो का। और आप तो जानते है जहाँ अपने चार बच्चे हो बहनों के छः और भाइयो के पांच और इनके आलावा चचेरे भाइयो के बच्चे भी हो तो समझ लो खाना बनाने की क्या आफत होगी कोई नमक तेज वाला है को सलाद वाला कोई हलके पतले फुल्के खाने वाला। यह तो संयम है हमारी आदरणीय मामियो का की वो बड़ी समझदारी के साथ सब काम निवता लिया करती थी और रात को सोने से पहले सब थकान भूल कर हंसी-ठिठोली हुआ करती तो उसका हिस्सा भी बना करती। कई बार फीकी खीर बनती जिसमें स्पेशल सिम्भावली की शक्कर डाली जाती थी क्या स्वाद आता बस पूछिए मत। जून की गर्मियो में भी रात में चादर ओढ़नी पड़ती थी लेकिन अब गाँव में भी प्रदुषण का प्रभाव दिखने लगा है।
एक और किस्सा याद आया बड़े मामा जी के बड़े बेटे प्रदीप भाई दूध की डेरी चलाया करते थे, एक सुबह दूध लेने वाली गाडी नहीं आई अब सबसे ज्यादा मस्त और कॉमिक करेक्टर पंकज भाई के दिमाग में आया की दूध खराब हो इससे पहले इसका मावा बनवाया जाय भाई दो कैन दूध का मावा बनवाया गया। और घर बाहर के लोगो ने दबा के उन पेड़ो का स्वाद लिया।
हमारा यहाँ खेतो के नाम कुछ ऐसे लिए जाते थे की दिशा का ज्ञान भी हो जाय जैसे धुबिया वाले खेत, पछा वाले खेत और भूड वाले खेत। भूड वाले खेत थोडा बड़े थे इसलिए वहां मचान बनी हुई थी। वहां अक्सर ट्यूबेल चलता रहता था और दिन में हम वहां खेलने जाया करते वहां का असली खेल था भैंसे की सवारी और मटर के खेत में धमाके करने। गंधक और पोटाश को हतौडी में भर कर छोड़ा करते थे। इस खेत पर एक बार मैंने अर्थात (राहुल) और मेरी छोटी मौसी के लड़के अमित भैया ने एक काण्ड किया हमने एक लकड़ी के तख्ते में चोबे लगाए और उसको सड़क पर रख दिया और खुद छिपकर देखने लगे सच मानिए उस दिन हमने 7 बड़े वाहनों में पंक्चर किया।पूरा दिन हम अपनी हरकत पर गर्व महसूस करते रहे।

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किस्से और भी है अगले अंको को पढ़िए और अपने बीते कल जैसे पल जी लीजिये--------

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ - भाग एक

आप सभी के लिए दिल से लिखी कहानियां शुरू कर रहा हूँ जो समय रह रह कर याद आता है उनको लिख रहा हूँ समय हो तो पढियेगा। और हाँ इस कहानी में कोई लाग लपेट इसमें सिर्फ दिलके भाव, सुख, दुखः और मिटटी की माहक है। मनोरंजन के लिए नहीं सिर्फ भावों के लिए पढ़िए....

विशुद्ध सत्य कथा : गाँव की सांझ

15 मई को रिजल्ट आया घर आये और आकर पता चला कि नानी जी के यहाँ जाने की बात चल रही है। बस फिर क्या था रंगा और बिल्ला की ख़ुशी का ठिकाना नही था आखिर उस जगह जाने की बात हो रही थी जहाँ सबसे ज्यादा जाने का मन इन दोनों का रहता है क्योकि अत्यधिक प्रेम और स्नेह की जगह यही तो है “नानी का घर”।

बुलंदशहर से मुंढाखेडा (अमरोहा) की यात्रा

उस समय अमरोहा के लिए या मुरादाबाद के लिए सीधी सवारी नहीं हुआ करती थी। आने जाने के दो साधन थे, पहला स्याना होते हुए गढ़ और फिर गजरौला। गजरौला से धनौरा के लिए मेटाडोर चला करती थी। फिर धनौरा से हर घंटे पर एक बस पैसेंजर और एक मेल चला करती थी, बस उसमें बैठ 11 किलोमीटर का बाकि सफर यात्रा के लिए रह जाता। असली मजा यहीं से शुरू हो जाता था क्योकि यहाँ से हमारी हर मांग पूरी होने लगती थी। कभी कुछ खाने को मिलता कभी कुछ, उस समय एक सॉफ्ट ड्रिंक चला करती थी सिट्रा भाई वो मिल जाती तो लगता अमृत मिल गया।

अभी यात्रा का असली मजा बाकि था भाई गाँव को जाते हुए काली सड़क पर चलती प्राइवेट बस झपड़-झपड़ करती मंजिल की और चलती चली जाती, कमाल की बात यह है की वो सड़क बस इतनी चौड़ी हुआ करती की एक बस के दोनो तरफ के टायर दोनों किनारों के ऊपर हुआ करते दूसरा वाहन आ जाय तो एक को कच्चे में उतरना पड़ता। गाँव की सरहद आते ही वहां पर या तो कोई से मामा जी मिलते यह कोई से भैया और साथ होती भैंसा-बुग्गी आय हाय मजे हो जाते टिक टिक टिक हुर्रे करते हुए पहुँच जाते गाँव।

मेल-मिलाप

आज की तरह नहीं उस समय का मेल-मिलाप गजब का हुआ करता बच्चो को गले लगाया जाता और उनके माथे पर चूमा जाता। हमारे नाना जी साथ भाई थे जिनका जलवा पूरे क्षेत्र में था। हमारी माता जी अपने भाई-बहनों में सबसे छोटी थी जिस कारण उनको तो स्नेह मिलता ही था हमको उनसे ज्यादा मिलता था। खैर हमने अपने नाना जी तो देखे नहीं थे उनके जो भाई थे उनको देखा और उनसे बहुत कहानियां सुनी थी। कोई गुस्से वाले नाना थे कोई बड़े हंसमुख। कहानियां सुनी वो आज भी याद है “सूरज पंख की चिड़िया”, “सौतेली बहनें” आदि आदि। इस समय हमारा ही आना नहीं हुआ करता था बल्कि दो मामा जी दिल्ली रहते वो और उनकी संताने भी आया करती। कुनवा बड़ा था तो एक दर्जन बन्दर सेना इक्कठा हो जाती थी और बड़ो को मुसीबत ना आये ऐसा हो सकता था क्या ?
क्रमशः