शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बूंदा-बांदी

जैसे बूंद बरसात की वैसे 
आँखों का पानी देखो तो 
बूंद जीवन ले कर आती है
वही आँखों का पानी कभी ख़ुशी गम

धरती की प्यास बुझती है जब 

बूंद धरती पर गिरती है तब 
गम भी दिल के निकलते जब 
आँखें भी रोती है खुल कर तब

अब ये बूंदा-बांदी दिल को ऐसे तडपाये 

ना जाने क्यों उनकी याद अकेले में ही आये 
साथ बरसात के दिल भी झरना बनकर रोये,
और सूखे रेत पर लकीर बन जाये 


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