रविवार, 9 अक्टूबर 2011

....जिंदगी शमशान जैसे अकेली बन गई !

ये वेदना उस व्यक्ति के मन की है जो अपनों के द्वारा ठगा गया है, जिसको समाज एक मांस का लोथड़ा मात्र समझते है... वह क्या सोचता है बस उसके दिल की हकीकत को दर्शाने की कोशिश की गयी है.......
जिंदगी शमशान जैसे अकेली हो गई है
आहट भी जब अकेले में डराती है 
मोहब्बत बस, इतनी रुस्बा मुझसे हो गई है...


जिंदगी शमशान जैसे अकेली हो गई है
साया भी अपना खुद को डराने लगे 
इतनी सिया अँधेरी गहरी रात हो गई है...


जिंदगी शमशान जैसे अकेली हो गई है
तेरी यादें रह-रह जगातीं हैं नींद से मुझे 
नींद भी तो परायी सी हो गई है...


जिंदगी शमशान जैसे अकेली हो गई है
वीरान पड़ा हो खंडर, दीवार भी बदसूरत हो गई है 
सूखे पेड़ की पत्ती के जैसे मेरी रुक्सती की गवाह हो गई है...


क्या जीर्णोधार मेरा होगा कभी ?
क्या चहलकदमी क्या आँगन में होगी ?


क्या मुस्कुराएंगे मेरे अपने





क्या साथ कोई होगा मेरा ?


नहीं जनता अभी तो.... जिंदगी शमशान जैसे अकेली बन गई !....



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