सोमवार, 25 जून 2012

परम्पराओ से सरावोर मेरी माँ


जब एक लड़की अपना घर छोड़ कर आती है, तो उसके साथ उसके घर की परम्परा भी साथ बंधी आती है | यही परंपरा उसको एक ऐसी कडी रूप में नए घर से जोड़ देती हैजिसको हटा दिया जाये तो सारे मार्गो का जुडाव एक दुसरे से बिखर जायेंगे | ऐसी ही  परम्पराओ से सरावोर थी मेरी माँ "उत्तरा शर्मा" | एक लड़की का वो आँगन जिसमे वो अपनी प्यारी माँ के साथ खेला करती थी अचानक, कभी कभी आकर माँ के साथ बैठने की मात्र जगह रह जाती है | नयी जिम्मेदारियों निभाने के फेर में उसको याद नहीं रहता कि उसका एक परिवार था जिसमे उसके भाई - बहनमाता - पिता रहते है उसको तो बस याद रहता है कि कैसे अपने ससुराल में वो सबका ध्यान रख सके और निरंतर वो इसी प्रयास में लगी रहती है |
एक बार उत्तरा अपने दो बड़े भाइयो और एक बड़ी बहन के साथ अपनी नानी के घर जाने की तैयारी कर रही थी क्योकि यह वो समय था जो साल में एक बार आता था इस दिन उसके पिता जी और माता जी के साथ वह लोग मस्ती करते हुए जाते थे | ७० के दशक में बैलो के द्वारा रथ जोड़े जाते थे देहात किसान के पास तब यांत्रिक सुविधा नहीं हुआ करती थी ३० किलोमीटर का रास्ता भी दो दिनन में तय किया जाता था | खैर सुबह चल कर शाम तक नानी के घर पहुंचना था तो रास्ते की तैयारी की गयी एक सूखी सब्जीपुरियां और आचार साथ रखा गया | गर्मी भी बहुत थी तो तो दो मटके भी रखे गएऔर चल दिया गया अपनी मंजिल की ओर |
आज ये वाक्या उत्तरा को इसलिए याद आया क्योकि एक यही दिन था जब उसको साल में पिता जी का प्यार मिलता ओर भाइयो का स्नेह और लड़ने के लिए शरारती बहन उषा | बाकि
पूरे साल तो माँ तो ३० लोगो के परिवार की रोज़मर्रा की जरुरत का ध्यान रखती थी और पिता जी खेती देखते थे
उत्तरा को बड़ का पेड़ भी याद है जिसके नीचे बैठकर पूरा परिवार आधे रास्ते की थकान मिटाता और वही दोपहर का भोजन करता था जैसे ही सूर्य देवता की तपिश कम
होती कारवां चल देता था |
आज अपने बच्चो को पास बिठा कर ये कहानी बता रही उत्तरा गंभीर बीमारी से जूझ रही है और रोते हुए अपने पुराने दिन याद कर रही है कैसे उसके सबसे छोटे भाई ने उसको बैल - बोटम ला कर दी थी संतान सबसे करीब माँ के होती है वैसे ही उत्तरा अपने परिवार में माँ के सबसे करीब थी और लगभग सभी आदत अपनी माँ की अपने में सम्माहित कर ली थी | वही शांत स्वभावकठिनाई में भी हस्ता हुआ चेहरा और सबसे बड़ी बात अपनी पीड़ा को किसी को भी ना दिखाना |
आज जीवन के सबसे बड़े कष्ट से उत्तरा लड़ रही है और उस को लग रहा है की अब वो नहीं बचेगी | आज अस्पताल का वो दिन याद आ जाता है जब एक जाँच के लिए उनके सीने की हड्डी को को ले जाया जाता हैकहने में कितना सरल है कि एक डाक्टर आएगा और एक इंजेक्शन जिसकी सुई लम्बी है उससे वो हड्डी ले जायेगा | लेकिन उस दिन को याद करके मैं आज भी रो देता हूँ | 
इन्थेसिया देने के बाद भी कितनी पीड़ा और कितना दर्द था माँ को, लेकिन उसके बाद के शब्द ने मुझे अन्दर तक हीला दिया मेरी माँ ने मेरी तरफ आशा की नजर से देखते हुआ  कहा कि भाई अब तो मैं ठीक हो जाउंगी ?
मेरी माँ जितनी सरल थी उतनी शांत और कोमल मन की थीमेरे मोहल्ले में, मेरे जानकारों में आज तक मैंने उनकी कोई बुराई नहीं सुनी | बस यही सुना की बहूजी जैसी महिला कोई नहीं है | (आज भी लोग थी नहीं लगते) पर उनकी याद बहुत आती है चाह कर भी नहीं मिल सकता ना जाने कहा है मेरी प्यारी माँ जो मेरी बेटी के जैसी थी अंतिम समय में बिलकुल एक बच्चे की तरह हो गयी थी माँ मुझे तेरी याद आती है बहुत आती है... 
     

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Dil chhoo liya bhai.. GOD Bless You!!!

Unknown ने कहा…

Dil chhoo liya bhai.. GOD Bless You!!!

बेनामी ने कहा…

माँ ......एक शब्द ही नहीं है, बल्कि एक एहसास है.......आपके इस ब्लॉग को पड़कर मुझे ७० किलोमीटर दूर बुलंदशहर में रह रहीं अपनी माँ की याद आ रही है .......कहते हैं घर का सबसे छोटा बच्चा शायद कभी बड़ा नहीं हो पाता.......आज भी मैं अपनी माँ के लिए बहुत छोटा बच्चा हूँ .....उनका यही प्यार मुझे हमेशा उनके पास होने का अहसास देता है .......आपकी स्वर्गीय माता जी को मेरा कोटि -कोटि नमन .......!
भव्य चौहान